Sunday, April 7, 2019

भारत में प्लास्टिक का प्रवेश

भारत में प्लास्टिक का प्रवेश लगभग 60 के दशक में हुआ पर्यावरण असंतुलन की वजह से पहाड़ में तबाही आ रही है. पहाड़ों की रानी कही जाने वाले शिमला में बूंद-बूंद पानी के लिए लोग तरस रहे हैं. पर्यावरण का संकट हमारे लिए एक चुनौती के रुप में उभर रहा है. संरक्षण के लिए अब तक बने सारे कानून और नियम सिर्फ किताबी साबित हो रहे हैं.पूरा देश जल संकट से जूझ रहा है 

सामान्य तौर पर, किसी भी उत्पाद को खरीदने से पहले सोचें - क्या आपको वास्तव में इसकी आवश्यकता है? इस उत्पाद के उत्पादन ने पर्यावरण को कैसे प्रभावित किया और उत्पाद (और संबद्ध पैकेजिंग सामग्री) के निपटान के साथ आगे क्या प्रभाव पड़ेगा? जब आप कुछ खरीदने के बारे में सोच रहे हों, तो 30-दिवसीय नियम आज़माएं - पहली बार फैसला करने के 30 दिन बाद आप एक उत्पाद चाहते हैं जो वास्तव में आपका निर्णय ले सके। दो से तीन साल पहले भारत में अकेले आटोमोबाइल क्षेत्र में इसका उपयोग पांच हजार टन वार्षिक था संभावना यह जताई गयी भी कि इसी तरफ उपयोग बढ़ता रहा तो जल्द ही यह 22 हजार टन तक पहुंच जाएगा पारस्थितिकी असंतुलन को हम आज भी नहीं समझ पा रहे हैं. . जंगल आग की भेंट चढ़ रहे हैं. प्राआर्थिक उदारीकरण और उपभोक्तावाद की संस्कृति गांव से लेकर शहरों तक को निगल रही है. प्लास्टिक कचरे का बढ़ता अंबार मानवीय सभ्यता के लिए सबसे बड़े संकट के रुप में उभर रहा है.

. जीव विज्ञानियों के अनुसार समुद्र तल पर तैरने वाला यह भाग कुल प्लास्टिक का सिर्फ एक फीसदी है. जबकि 99 फीसदी समुद्री जीवों के पेट में है या फिर समुद्र तल में छुपा है. आज स्थिति यह हो गई है कि 60 साल में यह पहाड़ के शक्ल में बदल गया है.. 1991 में भारत में इसका उत्पादन नौ लाख टन था. भारत में जिन इकाईयों के पास यह दोबारा रिसाइकिल के लिए जाता है वहां प्रतिदिन 1,000 टन प्लास्टिक कचरा जमा होता है. जिसका 75 फीसदी भाग कम मूल्य की चप्पलों के निर्माण में खपता है.  आर्थिक उदारीकरण की वजह से प्लास्टिक को अधिक बढ़ावा मिल रहा है. 2014 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार समुद्र में प्लास्टि कचरे के रुप में 5,000 अरब टुकड़े तैर रहे हैं. अधिक वक्त बीतने के बाद यह टुकड़े माइक्रो प्लास्टिक में तब्दील हो गए हैं.


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